Articles
स्वराज अभियान महाराष्ट्र के महासचिव, संजीव साने का लेख: संवेदना

स्वराज अभियान महाराष्ट्र के महासचिव, संजीव साने का लेख: संवेदना

संवेदना

तब
एक तौलिये से पूरा घर नहाता था
दूध का नम्बर बारी-बारी आता था
छोटा माँ के पास सो कर इठलाता था
पिताजी से मार का डर सबको सताता था
बुआ के आने से माहौल शान्त हो जाता था
पूड़ी-खीर से पूरा घर त्यौहार मनाता था
बड़े भाई के कपड़े छोटे होने का इन्तजार रहता था
स्कूल मे बड़े भाई की ताकत से छोटा रौब जमाता था
बहन-भाई के प्यार का सबसे बड़ा नाता था
धन का महत्व कभी कोई सोच भी न पाता था
बड़े का बस्ता, किताबें, साईकिल, कपड़े, खिलौने, पेन्सिल, स्लेट स्टाईल चप्पल सब से छोटे का नाता था
मामा-मामी नाना-नानी पर हक जताता था
एक छोटे से सन्दूक को अपनी जान से ज्यादा प्यारी तिजोरी बताता था

अब
तौलिया अलग हुआ, दूध अधिक हुआ
माँ तरसने लगी, पिता जी डरने लगे
बुआ से कट गये, खीर की जगह पिज्जा-बर्गर- मोमो आ गये
कपड़े भी व्यक्तिगत हो गये, भाइयो से दूर हो गये
बहन से प्रेम कम हो गया
धन प्रमुख हो गया
अब सब नया चाहिये
नाना आदि औपचारिक हो गए
बटुऐ में नोट हो गए
कई भाषायें तो सीखे, मगर संस्कार भूल गए
बहुत पाया,मगर काफी कुछ खो गए
रिश्तो के अर्थ बदल गए
हम जीते तो लगते है
पर संवेदनहीन हो गए
कहां थे, कहां पहुँच गये।

 

मेरे एक मित्र ने यह एक मैसेज भेजा है। जाहिर है कि उसे भी किसी ने फॉरवर्ड किया होगा। खैर बात फॉरवर्ड करने की नही है, बात यह है कि हम सब इतने संवेदनहीन कैसे हो गए। हमें अपने स्वार्थ के सिवा कुछ भी नहीं दिखता। दुनिया के सारे धर्म यही कहते हैं कि स्वार्थ छोड़ो अपने से आगे भी देखो, परमार्थ करो। एक तरफ तो लोग कहते हैं कि आज सारा अनर्थ इसलिए हो रहा है, क्योंकि लोगों ने धर्म की राह छोड़ दी है। दूसरी तरफ दुनिया जाए भाड़ में, बस मेरा कल्याण हो, यह मनोकामना करना।

ऊपर से ‘मैं हूँ, इसलिये समाज है’ यह नारा बुलंद करनेवाला पूंजीवाद है, जो ‘कर लो दुनिया मुठ्ठी में’ यह नारा लगाता है। ऐसे में हमारी संवेदना बचेगी कैसे? चारो तरफ से हमला है। पश्चिम से नव-पूँजीवाद का।पूर्व से पूंजीवाद और साम्यवाद का मिश्रण। उत्तर और दक्षिणसे कट्टरता और धर्मवाद। इन सभी के साथ में आतंकवाद। तो इन सब आक्रमणों से कैसे बचा जाए, यह विचारणीय प्रश्न है।

हर इंसान की संवेदना जगाते रहना, उसके लिए मोहल्ले के स्तर पर छोटे उपक्रम, कार्यक्रम करना और उनको एक संगठन के सूत्र में बांधने की कोशिश करना, यह तो हम कर ही सकते हैं। आज हमारे सामने एक बड़ा संकट है, लेकिन उसके लिए एकदम से जनता संघर्ष करने या लड़ाई करने अपने साथ नही आएगी। उसे तो अपने रोज़मर्रा के सवालों से फुरसत नही है। लेकिन अगर उसका एक छोटा सा मसला हल करने में हम उसके साथ रहे, तो उसे एहसास होगा कि यह कार्यकर्ता, और यह संगठन मेहनतकश जनता के दुख- दर्द को समझता है, और उसकी समस्याओं के समाधान के लिए ईमानदारी से कोशिश करता है।

जो संवेदना हम जगाना चाहते हैं, वह तो समाज मे मौजूद है ही; लेकिन अलग-अलग ताक़तों की छाया से वह ढँक गई है। हमने आज किसान जैसे समाज के महत्वपूर्ण तबके के बीच अपनी पहचान बनाई है। इस पहचान के साथ हमें अन्य मेहनतकश तबको के साथ भी अपना रिश्ता बनाना पड़ेगा। मोटे तौरपर हमारे ज्यादा साथी शहरों में रहने के बावजूद किसान के हित की बात करते है। यह बेहद जरूरी और अनिवार्य है, लेकिन अगर हमने रोज का काम महानगर और शहर के मेहनतकश तबको के साथ नही किया, तो हमारी ऊर्जा आधा ही काम करेगी।

इसलिए संवेदना जगाने के लिए रिश्ते बनाने चाहिए. रिश्तों से संगठन बनता है।

Photo credit:  Selma of Pinterest


AUTHOR: SANJEEV SANE 
State General Secretary of Swaraj Abhiyan, Maharashtra
He is an eminent political activist with decades of grass-roots work.

sanesanjiv@gmail.com

लेखक के विचार निजी हैं.