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स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष योगेंद्र यादव का लेख: भाजपा को देश के लिए खतरा मानना और चुनाव में नोटा चुनने में कोई विरोधाभास नहीं

स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष योगेंद्र यादव का लेख: भाजपा को देश के लिए खतरा मानना और चुनाव में नोटा चुनने में कोई विरोधाभास नहीं

अपने कॉलम में अपने संगठन और उसकी राजनीति की चर्चा न करूं- एक नियम मैंने ये बना रखा है. बहरहाल, पिछले हफ्ते स्वराज इंडिया की दिल्ली इकाई ने इस बार के लोकसभा के चुनाव में ‘नोटा’ का बटन दबाने का आह्वान किया और उसके इस फैसले ने बहुत से लोगों का ध्यान खींचा- ‘नोटा’ यानि ‘नन ऑफ द एबॉव ऑप्शन’ (ऊपर्युक्त में से कोई नहीं) के इस्तेमाल को लेकर व्यापक महत्व के सवाल उठाये गये.

सच कहूं तो मैं इस बहस को लेकर बड़े अचरज में पड़ा. जहां तक मेरा खयाल है, यह हमारी पार्टी का बड़ा सीमित और तुलनात्मक रूप से छोटा फैसला था. हमारा बड़ा फैसला तो यह था कि इस बार लोकसभा के चुनाव में किसी सीट से मुकाबले में नहीं उतरना है और अपनी जो भी क्षमता-उर्जा है उसके सहारे इस बार कोशिश करनी है कि चुनावी चर्चा के केंद्र में खेतिहर संकट तथा बेरोज़गारी जैसे असल मुद्दे आ जायें. हां, इस बड़े फैसले के बाद भी एक छोटा सा सवाल बचा रह गया था कि आखिर इस बार के चुनाव में समर्थन किसका किया जाय. यहां भी हमारा मुख्य फैसला बड़ा साफ था: हम लोग बीजेपी को एक ऐसी ताकत के रूप में देखते हैं जो भारत नाम के बुनियादी विचार पर ही चोट कर रही है और ठीक इसी कारण उसे परास्त किया जाना चाहिए. लेकिन, एक बात यह भी है कि हम लोग विपक्षी दलों के महागठबंधन को किसी सार्थक विकल्प के रूप में नहीं देखते.

सो, यह आह्वान न करके कि जो भी बीजेपी को हराने की स्थिति में दिखे उसे वोट करें, हमने अपनी ऊर्जा विकल्पों की पहचान करने और उन्हें समर्थन देने पर लगायी. हमने संभावनाशील नये सियासी मोर्चों (जैसे मक्कल निधि मैयम, जन आंदोलन पार्टी तथा हमरो सिक्किम पार्टी ) तथा वैकल्पिक राजनीति के रुझान वाले उम्मीदवारों (जैसे प्रकाशराज, धर्मवीर गांधी तथा कन्हैया कुमार) को अपना समर्थन दिया. कुल मिलाकर देखें तो हमने 50 उम्मीदवारों का समर्थन किया है और मैंने 12 राज्यों तथा संघ शासित प्रदेशों में इन उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार किया है.

लेकिन जिन राज्यों या निर्वाचन क्षेत्रों में ऐसे उम्मीदवार न दिखें, वहां क्या किया जाय? दिल्ली ऐसी ही जगहों में एक है. हमारी राज्य इकाई नोटा के इस्तेमाल का विकल्प खुला रखने पर सहमत है. ज़्यादा ठीक होगा ये कहना कि हमने दिल्ली की तीन बड़ी पार्टियों- बीजेपी, आम आदमी पार्टी तथा कांग्रेस से कुछ कठिन सवाल पूछने का एक अभियान चलाने का फैसला किया. हमारा आह्वान था कि इन पार्टियों या उनके उम्मीदवारों में से अगर कोई भी इन सवालों का जवाब नहीं देता तो फिर मतदाता अपने विवेक से ‘नोटा’ का बटन दबाने का फैसला ले सकता है. हमारे लिए ‘नोटा’ इस बार ‘नो टिल ऐन अल्टरनेटिव’ यानि विकल्प के सामने होने तक ‘ना’ कहने का एक सीमित और एकदम आखिर में अपनाया जाने वाला उपाय है.

इस फैसले पर कड़ी प्रतिक्रियाएं आयीं: कुछ प्रतिक्रियाओं में आश्चर्य का भाव था, किसी में निराशा का पुट तो किसी-किसी प्रतिक्रिया में इस फैसले की सीधे-सीधे निन्दा की गई. आलोचना करने वालों में हमारे कुछ शुभचिन्तक तथा संघर्ष-पथ के साथी भी शामिल हैं. हमने पार्टी के भीतर दूसरी बार विचार-विमर्श किया और तय हुआ कि एक वक्तव्य जारी करके ‘नोटा’ को लेकर लिए गये फैसले के सीमित सन्दर्भ तथा ऐसे फैसले के औचित्य के बारे में स्पष्टीकरण दिया जाय. इसके बाद से बहस लगातार जारी है और इसकी बड़ी वजह ये नहीं कि इस फैसले का कोई खास असर होने वाला है बल्कि बड़ी वजह है वो दुविधा जो इस चुनाव में कई नागरिक महसूस कर रहे हैं.

नोटा के इस्तेमाल को लेकर दो किस्म के सवाल पूछे गये हैं: एक तो यह कि क्या ‘नोटा’ का इस्तेमाल किसी पार्टी के लिए सिद्धांत रूप में उचित कहला सकता है? दूसरा ये कि क्या इस अत्यंत महत्वपूर्ण चुनाव में ‘नोटा’ का इस्तेमाल करना किसी मतदाता के लिए अपने वोट का असरदार इस्तेमाल माना जायेगा?

कई आलोचक सिद्धांतगत आग्रहों के कारण ‘नोटा’ के इस्तेमाल को ठीक नहीं मानते. उन्हें लगता है, नोटा का विचार चाहे अभिजनवादी या अलोकतांत्रिक मिजाज का न हो लेकिन स्वयं में बहुत अराजनीतिक विचार है. ऐसे आलोचकों के मुताबिक नोटा का इस्तेमाल चुनाव का बहिष्कार करने के समान ही अच्छा या फिर बुरा कहलाएगा क्योंकि नोटा के इस्तेमाल से चुनाव के नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. क्या ये मान लेना हठधर्मी नहीं कि राजनीतिक व्यवस्था ने तो अपनी तरफ से सारे विकल्प सामने रख दिये हैं तो भी इनमें से किसी विकल्प को मन लायक नहीं माना जा रहा?

मेरी इस सोच से असहमति है. दरअसल नोटा और चुनाव के बहिष्कार में कोई तुलना ही नहीं की जा सकती- दोनों का आपस में दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं बैठाया जा सकता. दरअसल किसी का मतदान केंद्र तक जाना और फिर वहां नोटा का बटन दबाना लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उस व्यक्ति के गहरे विश्वास की अभिव्यक्ति है. नोटा के आलोचक इस बात को भुला बैठते हैं कि बड़ी कठिन लड़ाई के बाद नागरिक संगठनों ने नोटा का विकल्प हासिल किया है. नोटा को एक विकल्प के रूप में चुनने का फैसला सुप्रीम कोर्ट से 2013 में आया था और इसके लिए अर्जी डाली थी पीपल्स यूनियन ऑव सिविल लिबर्टीज़ ने. बेशक, फिलहाल की स्थिति में नोटा का विकल्प चुनने पर चुनावी नतीजों पर कोई असर नहीं डाला जा सकता, भले ही नोटा के तहत डाले गये वोटों की संख्या संबंधित निर्वाचन क्षेत्र में किसी भी उम्मीदवार को मिले वोटों से ज्यादा हो. निस्संदेह, नोटा का मतलब है प्रतिरोध स्वरूप डाला गया वोट. लेकिन फिर यही बात को उन उम्मीदवारों को दिये जा रहे समर्थन के बारे में भी कही जा सकती है जो शीर्ष के दो निकटतम प्रतिद्वन्द्वियों में शामिल नहीं हैं. नोटा का विकल्प इस चुनाव में बहुत से सामाजिक आंदोलनों द्वारा अपनाया गया है, मिसाल के लिए रायचूर के शराब-विरोधी आंदोलन तथा शिक्षा का अधिकार आंदोलन द्वारा. प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में डाला गया वोट लोकतंत्र में अत्यंत मानक तथा मूल्यवान युक्ति माना जाता है, इसका इस्तेमाल लोकतांत्रिक दुनिया में तकरीबन हर जगह होता है और इसके जरिए मतदाता राजनीतिक व्यवस्था के कर्णधारों को अपनी तरफ से संदेश देने का काम करते हैं.

दूसरी श्रेणी के सवाल कहीं ज़्यादा वज़नदार हैं, उनमें धार और त्वरा है. मिसाल के लिए यह पूछा जा सकता है कि एक तरफ तो आप कहते हैं कि यह चुनाव भारत की आत्मा को बचाने का चुनाव है तो फिर दूसरी तरफ लोगों से ये कैसे कह सकते हैं कि इस चुनाव में तटस्थ रुख अपनाइए? क्या यह अपरोक्ष रूप से बीजेपी को फायदा पहुंचाने की जुगत नहीं है? आखिर आप आम आदमी पार्टी को वैकल्पिक राजनीतिक शक्ति स्वीकार करके क्यों नहीं चल रहे? क्या आम आदमी पार्टी के साथ रहते आपको जो निजी अनुभव हुए उन अनुभवों के ही बंदी बनकर आप नहीं रह गये हैं?

‘बीजेपी संवैधानिक लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है’ और ‘बीजेपी को हरा सकने वाले किसी भी दल को समर्थन देने की ज़रूरत नहीं’- इन दो वाक्यों में कोई विरोध नहीं है. निराशा के गहन क्षणों में मन में किसी हूक की तरह यह भाव उठ सकता है कि काश, कोई ऐसा होता जो बीजेपी को हरा देता. आप निराशा के ऐसे क्षणों में ऐसी भी इच्छा पाल सकते हैं कि जब संवैधानिक लोकतंत्र पर हमला एकदम सधे और संगठति रीति से हो रहा है तो इसके मुकाबिल खड़े किसी बोधहीन विपक्ष को भी समर्थन दिया जा सकता है. लेकिन ऐसी इच्छा रखना एक बात है और इससे एकदम ही अलग बात है किसी ऐसी पार्टी या उम्मीदवार के लिए चुनाव-प्रचार करना जो बीजेपी को हरा सकने की स्थिति में है. व्यग्रता या फिर निराशा का भाव हमारे गणतंत्र की आत्मा को बचाने की सिद्धांतबद्ध राजनीति को कमज़ोर करता है. कड़वी सच्चाई ये है कि किसी भी विपक्षी दल ने हमारे सामने बीजेपी का सार्थक विकल्प प्रस्तुत नहीं किया: इन पार्टियों के पास देश के लिए कोई बड़ा सपना नहीं, कोई स्पष्ट दिशाबोध नहीं, कोई कारगर युक्ति और भरोसेमंद चेहरा मौजूद नहीं. विकल्प के ना होने की पहचान दरअसल विकल्प को गढने की दिशा में उठा पहला कदम है.

जहां तक उन लोगों की बात है जो आम आदमी पार्टी को वैकल्पिक राजनीति की एक शक्ति मानते हैं, उनसे यही कहा जा सकता है कि दरअसल भोलेपन की भी एक सीमा होती है. स्वराज इंडिया में शामिल हमलोगों ने कोशिश की है कि हमारे निजी अनुभव हमारे राजनीतिक निर्णयों के आड़े ना आयें. दरअसल हमने गोवा तथा कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को अपनी शुभेच्छाएं भेंट की थी, समर्थन दिया था. इन दो जगहों पर पार्टी ने अच्छे उम्मीदवार उतारे थे. मैंने अतिशी मारलेना के कामों की खुलकर सराहना की है और कपिल मिश्रा के हास्यापद आरोपों के विरुद्ध अरविन्द केजरीवाल का बचाव किया है. लेकिन जो लोग सोचते हैं कि अरविन्द केजरीवाल फासीवादी ताकतों के खिलाफ उठ खड़ी हुई शक्तियों के सहयोगी हैं, मैं उनसे बस यही कहूंगा कि दरअसल आप अरविन्द केजरीवाल को जानते नहीं.

छोड़ दें सिद्धांत की बात, क्या ये बात सच नहीं कि इस अत्यंत अहम हो चले चुनाव में नोटा का विकल्प चुनना बीजेपी को फायदा पहुंचा सकता है? अब इस सवाल का जवाब तो प्रमाणों को खंगालकर ही दिया जा सकता है. नोटा के आलोचक एक ना एक तरीके से इस मान्यता के जोर में बह निकले हैं कि बीजेपी तथा उसके मुख्य प्रतिपक्षियों के बीच टक्कर कांटे की है और नोटा का वोटर दरअसल विपक्ष का ही मतदाता है और ऐसा वोटर अगर विपक्ष को वोट ना डालकर नोटा का बटन दबाता है तो इससे बीजेपी को फायदा होगा. लेकिन मेरा ख्याल है, ऐसी मान्यता ठीक नहीं. हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि सिर्फ बीजेपी ही एकलौती पार्टी है जो नोटा के खिलाफ प्रचार-अभियान चला रही है. और, जो बाकी मान्यताएं हैं, उनकी सच्चाई की परख के लिए अच्छा होगा कि हम चुनाव के नतीजों का इंतज़ार कर लें. इस बीच बहस जारी रहे तो अच्छा है.

 

First published in the ThePrint

AUTHOR: YOGENDRA YADAV
National President of Swaraj India

yogendra.yadav@gmail.com

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