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म्यांमार के रोहिंग्या संकट पर स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राजीव ध्यानी के लम्बे लेख की तीसरी किश्त

म्यांमार के रोहिंग्या संकट पर स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राजीव ध्यानी के लम्बे लेख की तीसरी किश्त

बेघर और बेचारे लोग 3

म्यांमार के रोहिंग्या संकट पर राजीव ध्यानी के लम्बे लेख की तीसरी किश्त
जब समूचा बर्मा या यूँ कहें कि बर्मीज़ बौद्ध जापान की मदद से अंग्रेजों से लड़ने के लिए सेनाएं बना रहे थे, तब रोहिंग्या अंग्रेजों के साथ थे. आपसी समझ यह थी, कि अगर बर्मा पर अंग्रेजी कब्ज़ा बना रहता है, तो अंग्रेज अराकान के रोहिंग्या बहुल इलाके को अलग देश के तौर पर आज़ाद कर देंगे. दिल्ली में मौजूद अंग्रेजी सेना ने रोहिंग्या नौजवानों को अपना साथ देने और जापानी- बर्मी फौजों को अराकान में आगे बढ़ने से रोकने के लिए हथियार भी दिए.

अब रोहिंग्या जापानियों के साथ- साथ दूसरे बर्मावासियों के सामने हथियार लेकर खड़े थे. इसने स्थानीय अराकानी बौद्धों को ही नहीं, समूचे बर्मा को हमेशा के लिए रोहिंग्याओं के खिलाफ खडा कर दिया. नतीजतन अराकान प्रदेश में जगह- जगह पर साम्प्रदायिक संघर्ष हुए. मुस्लिम बहुल इलाकों में बौद्धों को मारा गया, और बौद्ध इलाकों में मुसलमानों को. मुस्लिम इलाकों से बौद्धों का पलायन हुआ, और बर्मा व अराकान राज्य की दूसरी जगहों पर बसे मुस्लिम अपने प्रभाव वाले इलाकों की ओर भाग आए.

रंगून पर जापान का कब्ज़ा और रोहिंग्याओं की मुश्किल

लेकिन 1942 में बर्मा की राजधानी रंगून जापानियों के कब्ज़े में आ गया. जल्द ही सारे बर्मा पर जापानी सेना का शासन स्थापित हो गया. लगभग एक साल बाद जापान ने बर्मा की आज़ादी का ऐलान कर दिया. इसके बाद अराकानी बौद्ध ज्यादा मजबूत हो गए. अराकानियों ने रोहिंग्याओं से बकाया हिसाब चुकता करना शुरू कर दिया. अब अराकानी बौद्धों के साथ जापानी सेना भी थी. दोनों ने रोहिंग्याओं को अपना दुश्मन और अंग्रेजों का साथी जानकार उन्हें ब्रिटिश भारत की ओर को खदेड़ा, हज़ारों रोहिंग्या मारे गए और न जाने कितनी रोहिंग्या महिलाओं के साथ बलात्कार हुए. बलात्कार वैसे भी हमेशा से सेनाओं की युद्धनीति का अहम भाग रहा है.

बताया जाता है कि खून खराबे में पचास हज़ार से ज्यादा लोग मारे गए. वैसे तो सही आंकड़े मिलना मुश्किल है, लेकिन लगभग सभी अनुमान इसे दो और एक का अनुपात मानते हैं. यानी मारे जाने वाले लोगों में लगभग एक तिहाई संख्या अराकानी बौद्धों की थी. जब पलायन हुआ तो जान बचाकर भागने वाले रोहिंग्या बर्मा में अपने इलाकों के साथ- साथ ब्रिटिश भारत के बंगाल में भी आए, जबकि अराकानी लोग बौद्ध इलाकों की ओर को भागे.

लेकिन जल्द ही बर्मा के नेताओं को समझ में आ गया कि अव्वल तो जापानी और उनके साथी दूसरे विश्व युद्ध को जीत नहीं पाएंगे, और दूसरा यह कि वे बर्मा से अपना कब्जा नहीं छोड़ेंगे. उन्होंने जापानियों के खिलाफ अंग्रेजों से समझौता किया और बर्मा को आज़ाद कराने के लिए बनाई गई फ़ौज की मदद से अंग्रेजों ने जापानियों को खदेड़ दिया. रोहिंग्या पहले की तरह अंग्रेजों के साथ थे. इस तरह अब बौद्ध और रोहिंग्या दोनों ही जापानियों के खिलाफ अंग्रेजों के साथ आ गए थे, लेकिन तब तक आपसी अविश्वास और घृणा की दरार काफी गहरा चुकी थी. इतिहास की किताबों में अभी बहुत से निर्मम और अमानवीय पृष्ठ जुड़ने बाक़ी थे.

या तो पाकिस्तान या अलग देश

1948 में अंग्रेजों ने बर्मा को आज़ाद कर दिया. लेकिन रोहिंग्या चाहते थे कि या तो उन्हें पाकिस्तान के साथ मिलने दिया जाए, या फिर एक अलग देश बना दिया जाए. उनके नेताओं ने 1946 में ही पकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना से संपर्क किया, लेकिन जिन्ना ने इसे बर्मा का अंदरूनी मामला बताया. बर्मा के नेताओं द्वारा तो इस मांग को खारिज किया ही जाना था. लेकिन रोहिंग्याओं की इस मांग ने उन्हें और भी समूचे बर्मा का दुश्मन बना दिया गया था. इसके अलावा दोनों समुदायों को बांटने वाली एक और बात हुई. आज़ादी के बाद बर्मा की सरकारों ने रोहिंग्याओं को बर्मा का नागरिक मानने से भी इनकार कर दिया.

अतिवादी समूहों की सक्रियता

बर्मा की आज़ादी के तुरंत बाद रोहिंग्या अतिवादी समूह सक्रिय हो गए. इन्होने खुद को मुजाहिद यानी धर्मयोद्धा कहा. इन तथाकथित मुजाहिदीन ने जल्द ही लगभग सारे उत्तरी अराकान पर कब्जा कर लिया. मुजाहिदीन के साथ महीनों की लड़ाई के बाद बमुश्किल सेना उन्हें तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान की ओर धकेल सकी. बर्मा सरकार ने पाकिस्तान के साथ समझौता किया ताकि मुजाहिदीन को मिलने वाली पाकिस्तानी मदद बंद हो. लेकिन सन 60 के आसपास तक मुजाहिदीन ने छोटे- छोटे गोरिल्ला हमले जारी रखे. सन 50 से 60 के बीच बार-बार इन्होंने सर उठाना और सेना ने उसे कुचलना जारी रखा.

1960 के बाद धीरे- धीरे ये समूह शक्तिहीन हो गए. ज़्यादातर ने आत्म समर्पण कर दिया. लेकिन एक दशक की चुप्पी के बाद सत्तर के दशक में मुजाहिदीन ने फिर से सर उठाना शुरू कर दिया. 1977-78 में ऑपरेशन किंग ड्रैगन के तहत बर्मा की सैन्य सरकार की बड़ी कार्रवाई के बाद आतंकवाद का यह दौर भी समाप्त हुआ. सेना ने बड़े पैमाने पर हत्याओं, आगज़नी और बलात्कारों के ज़रिये रोहिंग्याओं का दमन किया. उस समय भी बड़ी संख्या में रोहिंग्या लोग बांग्लादेश की तरफ भागे, लेकिन दोनों सरकारों के बीच समझौता होने के बाद ज़्यादातर लोग वापस आ गए. कुछ लोग अराकान की सीमा से लगते बांग्लादेश के कॉक्स बाज़ार इलाके में ही बस गए.

1982 का नया नागरिकता कानून

लेकिन रोहिंग्या तो लगातार बर्मा की सैन्य सरकार की आँखों में खटक रहे थे. चार साल बाद 1982 में सरकार ने रोहिंग्याओं से मुक्ति पाने का एक नया तरीका अपनाया. इसके तहत बर्मा में मौजूद तथाकथित विदेशियों की पहचान करने का एक बड़ा अभियान चलाया गया. निशाने पर खासतौर पर रोहिंग्या ही थे, सो उनका दमन शुरू हो गया. इस समय भी लगभग 2 लाख लोग भागकर बांग्लादेश के उन्हीं इलाकों में आए, जहां आज नए शरणार्थी कैंप लगाए जा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप के बाद इनमे से ज़्यादातर लोग वापस बर्मा लौट गए.

अंग्रेजों से आज़ादी के बाद से बर्मा में ज़्यादातर प्रत्यक्ष रूप से सेना का ही शासन रहा है, बाक़ी समय भी सेना चुनी हुई सरकारों से ज़्यादा ताक़तवर रही है. लोकतांत्रिक सरकारें फिर भी रोहिंग्याओं के साथ थोड़ी नरम रही हैं, लेकिन सेना इनके दमन का कोई अवसर नहीं चूकती.

1982 में ही बर्मा सरकार ने एक नया नागरिकता कानून बनाकर 135 एथनिक समूहों को मान्यता दी, लेकिन ब्रिटिश राज के दौरान या बर्मा की आज़ादी के बाद बर्मा में आए सभी लोगों को ‘अवैध आप्रवासी’ करार दिया गया. यानी 1886 के बाद बर्मा आनेवालों को बर्मा ने अपना नागरिक मानने से इनकार कर दिया. बर्मा के सभी रोहिंग्या ( जिनमें नामभर के कुछ हिन्दू भी शामिल हैं) इसकी ज़द में आ गए, क्योंकि बर्मा का यह मानना है कि ये सभी लोग ब्रिटिश राज के दौरान या उसके बाद क्रमशः भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश से आए हैं. जबकि सच यह था कि इनमें बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो सदियों से यहाँ बसे हुए हैं.

…अगली किश्त में जारी..

Photo credit: Democracy Now


लेखक: राजीव ध्यानी
स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष
राजीव ध्यानी पेशे से संचार सलाहकार और प्रशिक्षक हैं. लम्बे समय तक उन्होंने यूनिसेफ, केयर तथा बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ट्रस्ट जैसी संस्थाओं के साथ कार्य किया है.

rajeevdhyani@gmail.com

लेखक के विचार निजी हैं.