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स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष योगेंद्र यादव का लेख: महाभारत-2019 / मोदी हराओ के बहाने किस-किस के पाप धुलेंगे?

स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष योगेंद्र यादव का लेख: महाभारत-2019 / मोदी हराओ के बहाने किस-किस के पाप धुलेंगे?

  • कोलकाता रैली में विपक्षी दलों की एकजुटता के प्रयास और चुनावी महागठबंधन की निरर्थकता
  • राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों के गठबंधन के बाद राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन औचित्यहीन

अब सवाल यह नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनाव हारेंगे या नहीं, महत्वपूर्ण सवाल यह है कि ‘नरेन्द्र मोदी हराओ’ के राष्ट्रीय यज्ञ के बहाने किस-किस के पाप धुलेंगे? कुछ माह बाद होने वाले आम चुनाव में चुनौती यह नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी की सत्ता कैसे पलटेगी बल्कि चुनौती यह है कि इस सत्तापलट के माध्यम से वे हालात किस तरह से बदलें जिन्होंने मोदी को सत्ता तक पहुंचाया था।

 

अब यह तो साफ है कि भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में पराजय का सामना करने जा रही है। इसके लिए आपको बारीकी से किए गए किसी सर्वे या सेफोलॉजी के काले जादू की जरूरत नहीं है। मोटा हिसाब कर लीजिए, तो आप सही निष्कर्ष पर पहुंच जाएंगे। पिछले चुनाव की तुलना में भारतीय जनता पार्टी सिर्फ ओडिशा और पश्चिम बंगाल में अपनी सीटें बढ़ा सकती हैं, वह भी लगभग 10 से 15 तक।

 

भारतीय जनता पार्टी का यह नफा गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक के घाटे से साफ हो जाएगा। संभावना यही है कि यह नुकसान भी अधिक ही रहेगा। बाकी देश में न नफा न नुकसान।

 

सवाल का रह गया हिंदी पट्‌टी का। सिर्फ उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो वहां भारतीय जनता पार्टी को को कम से कम 40 सीटों का बड़ा घाटा है और बाकी हिंदी भाषी राज्यों में भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है। इन राज्यों में लगभग 60 सीटों का घाटा है। इसका मतलब है कि कुल-मिलाकर भारतीय जनता पार्टी 2014 की तुलना में कोई 100 सीटों के घाटे से इस आम चुनाव में उतर रही है। अगले तीन महीने में इसमें 20 से 25 सीटें कम या ज्यादा हो सकती हैं।

 

लेकिन, कोई करिश्मा, दुर्घटना अथवा घोटाला न हो तो भारतीय जनता पार्टी 150 से 200 सीट के बीच सिमट जाएगी और  सत्ता से बाहर हो जाएगी। यह दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ है।

अब यह भी स्पष्ट है कि भारतीय जनता पार्टी को चुनावी धक्का लोकतंत्र या सेकुलर वाद यानी धर्मनिरपेक्षता के मुद्‌दे पर नहीं लगेगा। इसमें कोई शक नहीं कि पिछले पांच साल में भाजपा के नेतृत्व वाली मोदी सरकार ने देश की हर लोकतांत्रिक संस्था को धक्का पहुंचाया है, इंदिरा गांधी के शासन में लगी इमरजेंसी के बाद लोकतंत्र पर सबसे बड़ा हमला बोला है।

 

यह भी निर्विवाद है कि पिछले पांच साल में संविधान के सेकुलर ढांचे पर सबसे बड़ा आघात हुआ है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के विरोधी दलों ने इस सवाल पर देशभर में समझ और चेतना बनाने का काम नहीं किया है। इसलिए देश की अधिकांश जनता इस सवाल को वोट देने का सबसे बड़ा मुद्‌दा नहीं बनाएगी। अगर भाजपा आगामी चुनाव में हारने जा रही है तो उसका सबसे बड़ा कारण अर्थव्यवस्था की बदइंतजामी है।

 

जिस वोटर ने विकास के नाम पर मोदीजी को वोट दिया था वह आज ठगा हुआ महसूस करता है। न विकास हुआ न किसान की आमदनी बढ़ी न रोजगार मिला, उल्टे मिले नोटबंदी जीएसटी और जुमले पे जुमले। इसका खामियाजा मोदी सरकार को चुनाव में भुगतना ही पड़ेगा।

मतलब साफ है कि मौजूदा मोदी सरकार को हराने के लिए विभिन्न दलों के किसी राष्ट्रीय महागठबंधन की जरूरत नहीं है। उसके लिए मोदी सरकार के अपने काम और अब तक बने स्थानीय गठबंधन पर्याप्त हैं। भाजपा को महाराष्ट्र के कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) गठबंधन, बिहार और झारखंड के राजद और सहयोगियों के गठबंधन और उत्तर प्रदेश के समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन से फर्क पड़ेगा। तो फिर ऐसे में राष्ट्रीय गठबंधन की कवायद क्यों? इस पृष्ठभूमि में पिछले सप्ताह कोलकाता में ममता बनर्जी की पहल पर और देशभर के विपक्षी नेताओं की मौजूदगी में हुई विशाल रैली को कैसे समझें?

सच यह है कि विपक्षी एकता की इस कवायद का भाजपा को हराने से नहीं अपने-अपने पाप धोने से मतलब है। इस महागठबंधन के बहाने पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र की हत्या करने वाली तृणमूल नेता ममता बनर्जी और इमरजेंसी लगाने की अपराधी कांग्रेस अपने आप को लोकतंत्र की रक्षक घोषित कर सकती हैं। इस आड़ में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी बसपा प्रमुख मायावती और राजद के लालू यादव जैसे नेता अपने आप को राफेल विमान सौदे में भ्रष्टाचार का विरोधी घोषित कर सकते हैं।

 

मोदी विरोध के बहाने आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल  एनसीपी नेता शरद पवार का हाथ थाम सकते हैं, भ्रष्टाचार में जेल काट रहे चौटाला से गठजोड़ कर सकते हैं। भाजपा की सांप्रदायिकता के विरोध के बहाने समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियां अपने जातिवाद को छुपा सकते हैं। और सबसे बड़ी बात यह कि मोदी विरोध की चिंता में ये सब पार्टियां चुनाव के सबसे बड़े सवाल को नजरअंदाज कर सकती हैं, यानी इस चुनाव में इन पार्टियों का एजेंडा क्या है, इनकी विचारधारा क्या है, देश के सामने क्या कार्यक्रम है, क्या सपना है? न भाजपा इन सवालों का सामना करना चाहती है न ही विपक्ष इन सवालों के उत्तर देना चाहता है।

 

दोनों चाहते हैं कि चुनाव बीत जाए और देश के किसी बड़े सवाल का उत्तर न देना पड़े? कोई नहीं चाहता कि इस कठिन सवाल का जवाब देना पड़े कि मोदी सत्ता में आए क्यों थे? दीर्घकाल में इस राजनीति का विकल्प क्या है? भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा का मुकाबला कैसे होगा?

तो फिर यह बीड़ा कौन उठाएगा? अगर देश की बड़ी पार्टियां देश के बड़े सवालों से विमुख हो जाएं तो क्या नागरिक चुपचाप बैठे देखते रहेंगे? या कि कुछ नागरिक खड़े होकर सबसे सवाल पूछेंगे? सत्ताधारियों से पूछेंगे कि आपने जनता के लिए क्या किया? और विरोधियों से पूछेंगे कि आपके पास विरोध के अलावा क्या विकल्प है? खेती किसानी, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए आपके पास क्या योजना है? क्या इस चुनाव से 1977 की कहानी दोहराई जाएगी या कुछ सार्थक नतीजा निकलेगा?  सिर्फ विरोध निकलेगा या विकल्प तैयार होगा?  यही 2019 का यक्षप्रश्न है।

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First published in the Prabhat Khabar

AUTHOR: YOGENDRA YADAV
National President of Swaraj India

yogendra.yadav@gmail.com


 

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