म्यांमार के रोहिंग्या संकट पर स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राजीव ध्यानी के लम्बे लेख की चौथी किश्त

बेघर और बेचारे लोग 4
म्यांमार की सरकार तो रोहिंग्या शब्द तक को मान्यता नहीं देती, और उसका अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी से लगातार यह आग्रह रहता है कि ‘ म्यांमार में आ बसे बंगाली मुसलमानों’ के लिए इस शब्द का इस्तेमाल न किया जाए. साल 2016 में खुद म्यांमार की शीर्ष नेता आंग सान सू क्यी अमरीका के राजदूत से यह कह चुकी हैं. उस समय उनका यह बयान मीडिया में भी प्रमुखता से आया था. दरअसल म्यांमार सरकार को लगता है कि इस शब्द को मान्यता देने से देर-सबेर रोहिंग्याओं को म्यांमार के एथनिक समूह के तौर पर मान्यता देने का रास्ता खुल सकता है. चूंकि रोहिंग्या शब्द के साथ इतिहास जुड़ा है. यह इतिहास रखाइन में सदियों से रोहिंग्याओं के बसे होने की पुष्टि करता है, इसलिए म्यांमार सरकार न तो इस शब्द का इस्तेमाल न खुद करती है, न किसी को करने देती है. उनके मुताबिक़ ये लोग बंगाली घुसपैठिये हैं
कहीं के नहीं
और इस तरह म्यांमार के रोहिंग्या सन 1982 के बाद से यानी पिछले 35 सालों से किसी भी देश के नागरिक नहीं हैं. उन्हें वोट डालने और सरकारी नौकरियों में भरती होने जैसे मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं. सरकार जब चाहे सेना के शिविरों या सडकों आदि के लिए उनकी ज़मीन ले लेती है, फिर उसी ज़मीन पर हो रहे निर्माण कार्य में उनसे जबरन मुफ्त में मजदूरी भी कराती है. म्यांमार सरकार रोहिंग्याओं को नागरिकता कार्ड न देकर एक अलग तरह का पहचान पत्र देती है, जिससे वे कुछ नागरिक सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं, लेकिन आतंकी संगठन और रोहिंग्या नेता आम लोगों को इस कार्ड को स्वीकार करने से मना करते हैं. इससे आम रोहिंग्या और भी वंचित हो जाते हैं.
यही सब वजहें हैं कि नवम्बर 17 में कैथलिक चर्च के प्रमुख पोप फ्रांसिस ने जब म्यांमार की यात्रा की तो उन्होंने पूरे म्यांमार प्रवास के दौरान एक बार भी रोहिंग्या शब्द का प्रयोग नहीं किया. हालाँकि म्यांमार के तुरंत बाद बांग्लादेश आकर उन्होंने न सिर्फ रोहिंग्या शब्द का इस्तेमाल किया बल्कि अंतर्राष्ट्रीय राजनय की मर्यादाओं में रहते हुए रोहिंग्याओं की इस बदहाली के बारे में काफी कुछ बोले भी.
म्यांमार के गैर पंजीकृत नागरिक
मज़े की बात यह है कि रोहिंग्याओं की स्थायी शरणस्थली यानी बांग्लादेश भी रोहिंग्याओं के लिए शरणार्थी शब्द का इस्तेमाल नहीं करता. 1992 के बाद बांग्लादेश ने इन्हें शरणार्थी कहने के बजाए अन-रजिस्टर्ड म्यांमार नेशनल्स (म्यांमार के गैर पंजीकृत नागरिक) कहना शुरु कर दिया. सीमाओं के काफी हद तक खुले होने से रोहिंग्याओं का चोरी- छिपे बांग्लादेश आना तो चलता ही रहा है, लेकिन पहली बार बड़ी संख्या में रोहिंग्या 1978 में आकर कॉक्स बाज़ार में बसे. हर बार जब म्यांमार की सेना के ज़ुल्म बढ़ जाते हैं, लोग लाखों की संख्या में इस तरफ आ जाते हैं. दोनों देशों की सरकारों के बीच वार्ताओं के दौर चलते हैं और काफी लोग लौट जाते हैं. लेकिन कुछ लोग तब भी यहीं रह जाते हैं. कुटुपलांग- बालूखाली के आधिकारिक सरकारी कैम्पों में तो करीब 33000 पुराने शरणार्थी बसे हुए हैं, लेकिन दो लाख से अधिक अन्य लोग इन शिविरों के अलावा इधर- उधर बस्तियां बनाकर बस गए हैं. बहुत से लोग स्थानीय ग्रामीणों के बीच भी रहते हैं.
इस तरह रोहिंग्या लोग कहीं के नहीं हैं. म्यांमार इन्हें अपना नागरिक नहीं बल्कि घुसपैठिया मानता है, तो बांग्लादेश इन्हें शरणार्थी न कहकर एक अजीब से नाम से पहचानता है. आज रोहिंग्या लोग दुनिया की सबसे बड़ी स्टेटलेस यानी राज्य विहीन कौम हैं.
फिर से पलायन
1990 के आसपास अराकान में रोहिंग्या मिलिटेंट फिर से सक्रिय हो गए. रोहिंग्या सौलिडेरिटी ऑर्गेनाइज़ेशन के नाम से बड़ा संगठन बना, जिसे बांग्लादेश और पाकिस्तान की जमात-ए- इस्लामी, भारत में कश्मीर के हिज्ब उल मुजाहिदीन, अफ़गानिस्तान में हिकमतयार के नेतृत्व वाले हिज्ब ए इस्लामी और मलेशिया आदि देशों के तमाम आतंकी संगठनों से अच्छी मदद मिली. इसी समय म्यांमार को करीब से जानने वाले स्वीडिश पत्रकार बर्टिल लिंटनर ने एक बड़ा खुलासा किया किया कि रोहिंग्या आतंकी संगठनों के पास पुरानी .303 रायफलों के अलावा बड़ी संक्या में लाइट मशीनगन, सब मशीनगन, ए के 47 और एम 16 जैसी खतरनाक असाल्ट रायफलें, राकेट लॉन्चर, बारूदी सुरंगों जैसे अत्याधुनिक हथियार भी आ गए हैं.
स्वच्छ और सुन्दर देश
1992 में बर्मा की सेना ने ‘ऑपरेशन क्लीन एंड ब्यूटीफुल नेशन’ के नाम से हिंसक कार्रवाई शुरू की. नतीजतन एक बार फिर ढाई लाख से ज्यादा रोहिंग्याओं को विस्थापित होकर बांग्लादेश की ओर भागना पड़ा. इस दौरान भी म्यांमार सेना का आम नागरिकों पर अत्याचार देखने में आया. इसके बाद एक समझौते के तहत 1992 से 97 के बीच इनमें से काफी लोग वापस अपनी ज़मीन पर यानी बर्मा के अराकान प्रांत आ गए, जिसे अब रखाइन के नाम से जाना जाने लगा था. इस दौरान आतंकियों द्वारा बम विस्फोट तथा सेना के साथ मुठभेड़ों की ख़बरें आती रहीं.
आतंक के बाज़ार में रोज़गार
अब तक आतंकी संगठनों की माली हालत सुधर गई थी. किसी भी आतंकी की भर्ती पर उसे एकमुश्त 30 हज़ार टका मिलते थे, जबकि प्रतिमाह वेतन था 10 हज़ार टका. मारे जाने पर आतंकी के परिवार को एक लाख टका दिए जाते थे. यह सब गरीब रोहिंग्या समुदाय के बेरोजगार युवाओं को अपने साथ जोड़ने के लिए पर्याप्त था. इस दौरान 2002 में सी एन एन ने अफगानिस्तान से ऐसे वीडियो टेप हासिल किये, जिनमें अल कायदा के लोग रोहिंग्या आतंकियों को ट्रेनिंग देते दिख रहे थे.
2012 की हिंसक घटनाएँ
मई 2012 के आखिरी दिनों में एक दिन अचानक यह बात फैली कि तीन रोहिंग्या लड़कों ने एक अरकानी महिला के साथ बलात्कार किया, उसे लूटा और उसकी हत्या कर दी. इसके बाद रोहिंग्याओं के विरुद्ध हिंसा भड़क उठी. दूसरी ओर से भी कुछ हिंसा हुई. हालाँकि बाद में पता चला कि उन तीन लड़कों में से एक बौद्ध था, और लूट की घटना ज़रूर हुई थी, लेकिन बलात्कार नहीं हुआ था.
बहरहाल, इस घटना के कुछ दिन बाद जून के पहले हफ्ते में बौद्धों की एक भीड़ ने मुसलमानों से भरी एक बस पर हमला किया. उनका मानना था कि इस बस में वे लड़के सवार थे. इससे पहले कि यह गलतफहमी दूर हो पाती, 10 मुस्लिम मारे जा चुके थे. साथ ही कुछ मुस्लिम आबादी वाले गाँवों पर हमला हुआ. अब तक ज़्यादातर मामलों में सुरक्षाबल इसमें सीधे शामिल नहीं थे, लेकिन उन पर रखाइन दंगाइयों के प्रति नरमी बरतने और रोहिंग्या दंगाइयों पर सख्ती के आरोप थे.
आगज़नी का तो यह आलम था कि दो ही दिनों में सरकार ने इस क्षेत्र में आपातकाल लागू कर दिया. सरकार ने 16 मुस्लिमों और 13 बौद्धों के मारे जाने की सूचना दी. हालाँकि रोहिंग्याओं का मानना था कि मुस्लिम मृतकों की संख्या इससे कहीं ज्यादा रही होगी. आतंकवादी घटनाओं के बाद सेना के लिए भी रोहिंग्याओं के खिलाफ दमनात्मक कार्रवाई का बहाना मिल चुका था. इस बीच सरकार ने संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था के कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया, और उन पर यह आरोप लगाया कि वे दंगे भड़का रहे हैं.
बहरहाल, एक महीने के अन्दर मरने वालों का आंकड़ा लगभग 100 और विस्थापितों का आंकड़ा एक लाख तक पहुँच गया. हमेशा की तरह बांग्लादेश की सीमा पर दबाव बनने लगा. हर बार की तरह शुरुआत में बांग्लादेश के बॉर्डर गार्ड्स ने अपनी सरहद में आने वाले रोहिंग्याओं को वापस धकेलना शुरू कर दिया.
नावों पर सवार लोग
इस बीच एक अनोखी चीज़ देखने में आई. बहुत से रोहिंग्या लोग नावों पर सवार होकर थाईलैंड, मलेशिया, कम्बोडिया आदि दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की ओर रवाना होने लगे. बहुत सी नावें इन देशों के समुद्र तट पर जा लगीं. काफी समय तक इनकी ख़बरें अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में छाई रहीं. पीपल ऑन बोट यानी नावों पर सवार लोगों के चित्र टीवी चैनलों और अखबारों की सुर्खियाँ बन गए. दिक्कत यह हुई कि सभी देशों ने इन्हें शरण देने से मना कर दिया. खाने और पीने के पानी के अभाव में इनमें से कई लोग नावों में और निर्जन द्वीपों में मारे गए. उनके साथियों ने वहीं उनकी क़ब्रें बनाईं, और फिर से किसी देश की सीमा पर जा खड़े हुए. हालांकि बाद में यह भी सुनने में आया कि बर्मा में रोहिंग्याओं पर हो रही हिंसा की आड़ में कुछ मानव तस्करों के गिरोह सक्रिय हो गए थे, और रोहिंग्या युवकों को इन देशों में बसाने का आश्वासन देकर उन्होंने अच्छी- खासी कमाई कर ली थी.
….अगली किश्त में जारी….
Photo credit: UNHCR/Andrew McConnell
लेखक: राजीव ध्यानी
स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष
राजीव ध्यानी पेशे से संचार सलाहकार और प्रशिक्षक हैं. लम्बे समय तक उन्होंने यूनिसेफ, केयर तथा बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ट्रस्ट जैसी संस्थाओं के साथ कार्य किया है.
लेखक के विचार निजी हैं.