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अयोध्या का कार्यक्रम विशुद्ध राजनीतिक कर्मकांड है, सेक्युलरिज्म के रक्षक ही इसकी हार के जिम्मेदार

अयोध्या का कार्यक्रम विशुद्ध राजनीतिक कर्मकांड है, सेक्युलरिज्म के रक्षक ही इसकी हार के जिम्मेदार

भविष्य का कोई इतिहासकार 5 अगस्त 2020 की तारीख के आगे ये लिख सकता है कि इस दिन भारत में सेक्युलरिज्म की मौत हुई. बेशक, हमारा ये इतिहासकार यह भी लिखेगा कि मरीज तो हमेशा से ही बीमार चला आ रहा था या उसके लिए ज्यादा ठीक होगा ये लिखना कि मरीज पिछले तीन दशक से बीमार था. इतिहासकार उन तारीखों को भी दर्ज करेगा जब आरएसएस-बीजेपी और इस कुनबे के बाकी धड़ों ने सेक्युलरिज्म के लिए मारक साबित होने वाले घाव दिये. लेकिन साथ ही इतिहासकार ये भी बतायेगा कि सेक्युलरिज्म के ताबूत में आखिरी कील जब ठोकी गई तो ठोंकने वाले हाथ बीजेपी के नहीं थे.

आज का दिन सेक्युलरिज्म की मौत का दिन है और ये मत समझ लीजिएगा कि अयोध्या में विराट राम मंदिर बनाने के लिए जो भूमि-पूजन हो रहा है, उसे देखते हुए ये बात कही जा रही है. मंदिर या कि गुरुद्वारा, चर्च या फिर मस्जिद के निर्माण में भला तकलीफ की कौन सी बात है और इसमें सेक्युलर राज्यसत्ता के मौत की बात कहां से आ गई? राम का भव्य मंदिर बने, ऐन अयोध्या में बने तो अमूमन इसे उत्सव का अवसर माना जायेगा जैसे कि गुरू नानक के जन्मस्थान तक जाने के लिए तीर्थयात्रियों के लिए कॉरिडोर बनाने को हम सबने उत्सव के एक अवसर के रूप में देखा था. कोई राजनेता किसी धार्मिक समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में जाये, समारोह की अगुवाई करे तो इसे सेक्युलर राज्यसत्ता के आचार के हिसाब से चाहे कोई उत्कृष्ट उदाहरण ना माना जाये लेकिन भारत में ऐसा होना कोई अचरज की बात नहीं, ऐसा तो अपने देश में सहज-सामान्य तौर पर होते ही रहता है.

लेकिन याद रहे, 5 अगस्त अनुच्छेद-370 और जम्मू-कश्मीर के सूबाई दर्जे के खात्मे की बरसी का भी दिन है. और सेक्युलरिज्म के लिए ये चिंता की बात है. इस बात से आंख मूंद लेना बहुत मुश्किल है कि भारत में जम्मू-कश्मीर एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य था. ये कल्पना कर पाना बहुत मुश्किल है कि इसी तरह किसी हिन्दू-बहुल राज्य को रातो-रात दोफाड़ कर दिया गया और राज्य के नागरिकों तथा शीर्ष नेताओं के अधिकार इतने लंबे समय तक बिना किसी गंभीर प्रतिरोध के स्थगित रहे. साथ ही, ये भी याद रखना चाहिए कि कश्मीर की त्रासदी हमारे सेक्युलरिज्म की मौत का संकेत कम और भारत के संघवाद के विनाश तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के बाबत एक नुकसानदेह धारणा बना लेने की नज़ीर ज्यादा है.

बहुसंख्यकवाद की जीत

आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अयोध्या में भूमि-पूजन समारोह की अगुवाई कर रहे हैं तो ये बहुसंख्यकवाद की राजनीति की जीत का चिह्न है. लेकिन, हमारे भविष्य का इतिहासकार ये भी दर्ज करेगा कि बहुसंख्यकवाद की राजनीति ने अपनी विजय-यात्रा की शुरुआत 1989 में की. अगर अभी कुछ नया है तो यही कि अब इस विजय-यात्रा पर वैधानिकता की मुहर लग गई है.

साल 1949 या फिर 1986 के विपरीत, इस बार रामलला को एक वैधानिक हस्ती का दर्जा हासिल है और इस दर्जे पर किसी और की नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी की मुहर लगी हुई है. (शायद, हमारा इतिहासकार अपने इतिहास के पन्ने पर चलते-चिट्ठे कहीं ये भी दर्ज करे कि 5 अगस्त के ही दिन को सुप्रीम कोर्ट ने अदालत की अवमानना के आरोप में जनहित याचिका के एक पुरजोर वकील पर मुकदमा चलाने का अनुष्ठान किया). भावी इतिहासकार इस तथ्य की भी निशानदेही करेगा कि एक विचित्र आदेश पारित करने के कुछ महीने बाद सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम पर भी स्थगन लगाने से इनकार कर दिया जबकि इस संशोधन अधिनियम में ये व्यवस्था की गई थी कि भावी नागरिकों के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव किया जायेगा.

अयोध्या में आज का समारोह कोई धार्मिक या फिर आस्था-केंद्रित समारोह नहीं है. ये विशुद्ध राजनीतिक कर्मकांड है, सीधे-सीधे ये जीत का कर्मकांड हैं. इस एक समारोह में ताकत के कई रूप घुले-मिले हैं: इसमें आप राज्यसत्ता की ताकत, सबसे बड़जोर राजनीतिक पार्टी की ताकत, बहुसंख्यक समुदाय की मुक्कामार ताकत, आधुनिक मीडिया की ताकत और धार्मिक सत्ता-प्रतिष्ठान की ताकत को एक में घुल-मिलकर सिर उठाते देख सकते हैं. बस, सिर्फ एक ही चीज सामने आने से रह गई है और वह है कि विपक्षी दल एकजुट होकर इस समारोह में नहीं पहुंचे. लेकिन इस खला को इस बार भरने का काम गांधी-परिवार के औपचारिक नेतृत्व में कांग्रेस ने किया और अन्य नेताओं ने विधिवत इसका अनुसरण किया.

हिन्दू-राष्ट्र का एक व्यावहारिक संस्करण, जो सेक्युलर संविधान से आभासी तौर पर मेल खाता है, हमारे आंखों के सामने अपने शुभारंभ के क्षण पर पहुंचा है. हां, किसी और ने नहीं बल्कि खुद कांग्रेस ने सेक्युलरिज्म के ताबूत में आखिरी कील ठोकी है.

सेक्युलरिज्म की हार

यह एक लंबे सफर के अपने मंजिल पर पहुंचने का दिन है. हमारे भविष्य के इतिहासकार को ये दिख जायेगा कि सेक्युलरिज्म की लड़ाई भारत ने अदालत या फिर चुनावी रणक्षेत्र में नहीं गंवायी. ये लड़ाई विचारों की लड़ाई थी और सेक्युलरिज्म की हार भारतीयों के मन-मानस के भीतर हुई. हिन्दू राष्ट्र के प्रतिपादकों को विजय का श्रेय क्योंकर देना. सेक्युलर राजनीति की एकमुश्त हार के वे लाभार्थी भर हैं. याद रहे कि सेक्युलरिज्म के मुहाफिज ही सेक्युलरिज्म की हार के लिए जिम्मेवार हैं.

आज हमें मान लेना चाहिए कि सेक्युलरिज्म की हार हुई तो इसलिए कि इसके मुहाफिजों ने सेक्युलरिज्म के विचार को लोगों तक ले जाने में आनाकानी की. सेक्युलरिज्म परास्त हुआ क्योंकि सेक्युलर अभिजन सेक्युलरवाद के आलोचकों के आगे अंग्रेजी छांटते थे. सेक्युलरिज्म हार गया क्योंकि उसने कभी हमारी भाषा में बात ना की, उसने अपने को कभी परंपरा की भाषा से ना जोड़ा, उसने कभी ना सोचा कि धर्म की भाषा के भीतर पैठकर बोलने, सोचने और सीखने की जरूरत है.

सेक्युलरिज्म की हार की एक बड़ी वजह रही कि उसने हिन्दू-धर्म को मजाक का विषय बनाया, ये ना सोचा कि हमारे अपने वक्त की जरूरत के हिसाब से हिन्दू-धर्म की एक नई व्याख्या करने की जरूरत है. भारत में सेक्युलरिज्म हारा क्योंकि यह अपने को एक लचर किस्म के अल्पसंख्यकवाद की हिमायती होने के लकब से छुटकारा ना दिला पाया और अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता से बिल्कुल ही मुंह मोड़े रहा. सेक्युलर राजनीति ने अपनी साख गंवायी क्योंकि उसके लिए प्रतिबद्धता का सवाल पहले सुविधा के सवाल में बदला फिर सुविधा का सवाल एक साजिश में तब्दील हो गया, अल्पसंख्यक तबके के मतदाताओं को अपने पाले में बंधक बनाये रखने की साजिश में.

आज, संस्कृति के आंगन में पैदा हुए इस सन्नाटे के बीच ऐसे हालात पैदा हो गये हैं कि जो कोई चाहे सो तिलक-त्रिपुंड लगाकर, त्रिशूल थामकर अपने को हिन्दुओं का नेता बता-जता सकता है. इसी से विचारधारा की जमीन पर वो हालात पैदा हुए हैं कि सेक्युलरिज्म के विचार को शैतानी विचार बताकर उसपर कोई भी हमलावर हो सकता है. इससे एक राजनीतिक खला पैदा हुई जिसके भीतर कांग्रेस हिन्दुत्व के प्रति निहायत ही उपेक्षा के अपने पुराने रुख से पलटकर एकदम से आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ गई है.

आज एक नये सफर की शुरुआत का सही दिन है, एक ऐसे सफर की शुरुआत का दिन जिसमें धार्मिक सहिष्णुता की खोयी हुई भाषा को फिर से तलाशा जाये, हिन्दू धर्म का पुनर्निर्माण किया जाये और अपने गणतंत्र पर फिर से अपना दावा ठोका जाये.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

 

Author : Yogendra Yadav


Published In : The Print

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