Press Release
आरटीआई संशोधन बिल को स्वीकृतिं न दें महामहिम राष्ट्रपति”: स्वराज इंडिया

आरटीआई संशोधन बिल को स्वीकृतिं न दें महामहिम राष्ट्रपति”: स्वराज इंडिया

स्वराज इंडिया
प्रेस विज्ञप्ति: 28 जुलाई 2019
 
“आरटीआई संशोधन बिल को स्वीकृतिं न दें महामहिम राष्ट्रपति”: स्वराज इंडिया
 
• संघीय ढांचे को चोट करने वाले इस बिल का समर्थन करने पर ओडिशा, तेलंगाना और आंध्रा के सीएम से स्वराज इंडिया ने किया सवाल
 
• सूचना अधिकार की मूल भावना के खिलाफ है यह आरटीआई संशोधन विधेयक
 
• संशोधन वापिस लेकर आरटीआई कानून को मूल स्वरूप में वापिस लाया जाए
 
• पारदर्शिता, जवाबदेही और नागरिकों के सशक्तिकरण से मोदी सरकार को लगता है डर
 
नवगठित राजनीतिक पार्टी स्वराज इंडिया ने सूचना अधिकार कानून में मोदी सरकार द्वारा अलोकतांत्रिक ढंग से किए गए संशोधन को आरटीआई की मूल भावना के खिलाफ बताते हुए महामहिम राष्ट्रपति से बिल को स्वीकृति न देने की अपील की है। लोकसभा में बिल पारित करवाने के बाद शुक्रवार को राज्य सभा में भी बीजेडी, टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस के समर्थन से मोदी सरकार ने संख्याबल के आधार पर आरटीआई कानून को कमज़ोर करने का अपना जनविरोधी उद्देश्य पूरा कर लिया। स्वराज इंडिया ने उन तीन क्षेत्रीय दलों को भी घेरा है जो अन्य मौकों पर तो संघीय ढांचे के पक्ष में आवाज़ उठाते हैं लेकिन अपना राजनीतिक दोगलापन दर्शाते हुए सदन में इस बिल का समर्थन किया।
 
सूचना अधिकार कानून में संशोधन करके सरकार ने केंद्र और राज्यों में नियुक्त होने वाले सूचना आयुक्तों का कार्यकाल, वेतन और सेवा शर्त तय करने का काम केंद्र सरकार को दे दिया है। मतलब कि अब तक सरकार से स्वतंत्र होकर काम करने वाले सीआईसी अब केंद्र सरकार की मर्ज़ी के मोहताज होंगे। अब तक इस कानून में प्रावधान था कि सूचना आयुक्तों का 5 वर्षों का निश्चित कार्यकाल होगा और वेतन से लेकर सेवा शर्त तक में सरकार का कोई दखल नहीं होगा।
 
स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने कहा, “2005 में बने सूचना अधिकार कानून ने हर नागरिक को स्थानीय प्रशाशन से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक से सवाल करने और तय समय सीमा में जवाब लेने का संवैधानिक अधिकार दिया। पिछले कुछ वर्षों में यह कानून लोकतंत्र की मजबूती, नागरिक सशक्तिकरण और शाषण प्रसाशन में पारदर्शिता जवाबदेही का सबसे बड़ा हथियार साबित हुआ है।
 
आम नागरिकों द्वारा मांगी जाने वाली ज़्यादातर सूचनाएं सरकार और सरकारी कामकाज से संबंधित होती हैं। इसलिए यह जरूरी है कि सूचना आयुक्तों को सरकारी हस्तक्षेप से पूर्णतः मुक्त रखा जाए। आरटीआई की मूल भावना के क्रियान्वयन के लिए अत्यंत आवश्यक था कि मुख्य सूचना आयुक्त की स्वतंत्रता और स्वायत्तता सुनिश्चित हो। पहली बार जब यह कानून बना तब भी स्टैंडिंग कमिटी की सिफारिशों के बाद सीआईसी के पद को सरकार से स्वतंत्र रखा गया। उच्चतम न्यायालय ने भी माना है कि पद को सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त रखने के लिए ज़रूरी है कि वेतन, कार्यकाल और सेवा शर्त तय करना सरकार के अधिकार क्षेत्र में न हो। इन्हीं कारणों से सूचना आयुक्त के पद को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के समकक्ष रखा गया और आरटीआई एक नागरिक सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण माध्यम बन पाया।”
 
पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता अनुपम ने कहा कि मोदी सरकार द्वारा सीआईसी के कार्यालय को काबू करने की कोशिश आश्चर्यजनक नहीं है क्यूंकि इस सरकार ने लगभग हर संस्थान की स्वायत्तता खत्म कर दी है। लोकतांत्रिक संस्थाओं की जवाबदेही संविधान के प्रति न होकर बस एक व्यक्ति के प्रति रह गयी है। सीबीआई, आरबीआई से लेकर सीएजी तक को कब्ज़े में कर लिया गया है, सीवीसी, एनएससी से लेकर चुनाव आयोग तक को काबू कर लिया, यहाँ तक कि न्यायपालिका से लेकर मीडिया तक सब कुछ संभाल लिया। बस एक सीआईसी था जो सरकार के काबू नहीं आ रहा था! आरटीआई के नाम पर कभी लोन डिफॉल्टर्स की लिस्ट मांग ली जाती थी तो कभी मोदी जी के हवाई यात्रा का ब्यौरा, कभी पूछ लिया जाता था कितना काला धन वापिस आया तो गंगा सफाई के नाम पर कितना खर्च हुआ, कभी नोटबंदी तो कभी मोदी जी की डिग्री के पीछे पड़ जाता सीआईसी तो कभी राजनीतिक पार्टियों को ही आरटीआई में आने का आदेश दे डालता था।
 
यह समझना मुश्किल नहीं कि हर संस्थान और सूचना के स्रोतों पर नियंत्रण करने की इच्छा रखने वाली मोदी सरकार सीआईसी के कामकाज से कितनी असहज रही होगी। यही कारण है कि शाह और शहंशाह की जोड़ी ने तय किया कि संसद में संख्याबल के दम पर इस कानून को ही मार डाला जाए। कानून संशोधन के बाद अब संविधान नहीं, शाह और शहंशाह तय करेंगे कि जनता को कितना और किस सूचना का अधिकार देना है मतलब कि अब न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी!
मोदी सरकार ने कानून में संशोधन करके आरटीआई लागू करवाने वाले सीआईसी की स्वायत्तता पूरी तरह खत्म कर दी है। हमेशा से ही इस सरकार की सूचना का अधिकार देने की बजाए सूचना को नियंत्रण करने की मंशा रही है। आरटीआई संशोधन के जरिए शाह और शहंशाह की जोड़ी ने अपनी अलोकतांत्रिक मंशाओं को कानूनी जामा पहना दिया है। सूचना कानून से विचलित होने वाले भ्रष्टाचारी आरटीआई कार्यकर्ताओं को जान से मारने की कोशिश करते रहे हैं, 32 हज़ार से ज़्यादा आरटीआई आवेदन लंबित पड़े हैं जिनमें 9 हज़ार से ज़्यादा आवेदनों को तो एक साल से ज़्यादा हो गए हैं। सूचना आयोग में रिक्त पड़े पद सरकार तभी भरती है जब न्यायपालिका से हस्तक्षेप हो। इन कमियों को दूर करने को बजाए मोदी सरकार ने कानून की मूल भावना को ही खत्म कर डाला।
 
वर्तमान संशोधन के लिए सरकार का तर्क है कि सीआईसी के आदेशों को जब हाई कोर्ट में चैलेंज किया जा सकता है तो यह पद सुप्रीम कोर्ट जज के समकक्ष कैसे हो सकता है। यह तर्क सिर्फ गलत ही नहीं बल्कि निहायत ही बचकाना है क्यूंकि प्रधानमंत्री या केंद्र सरकार तक के फैसलों को भी हाई कोर्ट में चैलेंज किया जा सकता है।
 
*स्वराज इंडिया ने उन तीन क्षेत्रीय दलों के नेताओं से भी सवाल किया है जिनके समर्थन से यह बिल राज्य सभा में पास हो पाया। आरटीआई संशोधन बिल राज्यों के सूचना आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार भी केंद्र सरकार को देता है जैसा करना देश की संघीय ढांचे के विरुद्ध है। अन्य मौकों पर सत्ता के केंद्रीकरण के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले यह क्षेत्रीय दल इस बिल का भला कैसे समर्थन कर सकते हैं।*
 
*स्वराज इंडिया ने महामहिम राष्ट्रपति से निवेदन किया है कि इस बिल को बिल्कुल भी अपनी स्वीकृतिं न दें। साथ ही पार्टी ने केंद्र सरकार से मांग किया है कि इस अलोकतांत्रिक संशोधन को रद्द करे और आरटीआई कानून को अपने मूल स्वरूप में वापिस लाए।*

 


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